काफी समय पहले की बात है एक गांव में एक मूर्तिकार रहता था। वह मूर्तिकला से बेहद प्रेम करता था और इसी के चलते उसने अपना पूरा जीवन मूर्तिकला को समर्पित कर दिया था। वह इतना ज्यादा पारंगत हो गया था कि वो जो भी मूर्ति बनाता था वो जीवंत प्रतीत होती थीं। हर कोई उसकी कला की प्रशंसा करता था। उसके चर्चे दूर-दूर तक थे। अपनी इतनी प्रसिद्धि देख उस मूर्तिकार में अंहकार आ गया। इस भावना में वो खुद को सर्श्रेष्ठ मूर्तिकार मानने लगा।
उम्र बढ़ती गई और जब उसका आखिरी समय पास आ गया तब वह मृत्यु से बचने की युक्ति सोचने लगा। वह चाहता था कि वो यमदूत की नजर से बच जाएं। अंत में उसे एक युक्ति सूझी। उसने अपनी बेमिसाल मूर्तिकला का प्रदर्शन करते हुए 10 ऐसी मूर्तियों का निर्माण किया जो दिखने में एकदम उसके जैसी थीं। मूर्तियां दिखने में इतनी जीवंत प्रतीत हो रही थी कि कोई यह नहीं कह सकता था कि मूर्तिकार कौन है और मूर्ति कौन सी है।
यमदूत चाहता तो वो हर मूर्ति को तोड़कर देख सकता था लेकिन यह मूर्तिकार की कला का अपमान होता। ऐसे में यमदूत ने एक तोड़ निकाला। यमदूत को यह पता था कि मूर्तिकार बहुत अंहकारी है। ऐसे में यमदूत ने मूर्तियों को देखकर कहा कि यह सभी मूर्तियां कलात्मकतता और सौंदर्य का अद्भुत संगम है। लेकिन मूर्तिकार ने एक त्रुटी कर दी। अगर वो यहां होता तो मैं उसे बता देता कि क्या त्रुटी हुई है। इतने में ही मूर्तिकार का अहंकार जाग गया। उसने झट बोला, “त्रुटि?? असंभव!! मेरी बनाई मूर्तियाँ सर्वदा त्रुटिहीन होती हैं।”
यमदूत की चाल कामयाब हुई और उसने मूर्तिकार को पकड़ लिया। उसने कहा कि मूर्तियां बोला नहीं करती। यही तुम्हारी त्रुटी है कि तुम अपने अहंकार पर काबू नहीं पा सकते हैं। यमदूत मूर्तिकार के प्राण हरकर यमलोक वापस चला गया।